Kaifi Azmi : मुल्क में बेबस व मजलूमों की इंकलाबी आवाज
कैफ़ी आज़मी जिनका असली नाम अख्तर हुसैन रिजवी था, उर्दू के एक अज़ीम शायर थे। कैफ़ी आज़मी का जन्म उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के मिजवान में 14 जनवरी 1919 को हुआ था। उन्होंने हिन्दी फिल्मों के लिए भी कई मशहूर गीत व ग़ज़लें भी लिखीं, जिनमें देशभक्ति का अमर गीत –
“कर चले हम फिदा, जान-ओ-तन साथियों” भी शामिल है। करीब 11 साल की उम्र रही होगी जब वो अपने पिता-भाई के साथ एक मुशायरे में गए हुए थे। इस मुशायरे में कैफी आजमी ने अपनी गजल पढ़ी। जिसे सुनकर उनके पिता-भाई हैरान रह गए। बेटे की प्रतिभा को पहचानने के लिए जब कैफी आजमी के पिता ने उन्हें एक गजल और लिखने को कहा, तो कैफी साहब ने बिना किसी देरी के एक गजल लिख दिया।
Biography of Kaifi Azmi । कैफी आजमी की जीवनी
Pen Name – ‘kaifi’
Real Name – Sayed Athar Hussain Rizvi
Born – 14 Jan 1918, Azamgarh, (Uttar Pradesh)
Died – 10 May 2002, Mumbai, (Maharashtra)
Awards – The Government of India honored him with the Padma Shri.(1974), Sahitya Akademie Award(1975),
Kaifi Azmi 1932 से 1942 तक लखनऊ में रहने के बाद कैफी साहब कानपुर चले गए और वहां मजदूर सभा में काम करने लगे। म1943 में जब बंबई में कम्यूनिस्ट पार्टी का आफिस खुला तो कैफी साहब बंबई चले गए और वहीं कम्यून में रहते हुए काम करने लगे। यहीं से कैफी को लिखने की वजह और अपनी लेखनी में निखार मिला।
प्रगतिशील अदबी आंदोलन के शायर थे कैफी साहब की पूरी शायरी अलग-अलग लफ़्ज़ों में शोषित वर्ग के आँसुओं की दास्तान है। उसी के पक्ष में क़लम उठाते थे। उसी के लिए मुशायरों के स्टेज से अपनी नज़्में सुनाते थे।
क़ैफ़ी आज़मी Kaifi Azmi को राष्ट्रीय पुरस्कार के अलावा कई बार फिल्मफेयर अवॉर्ड भी मिला। 1974 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया।
हैदराबाद में एक मुशायरा कैफी की जिन्दगी का सबसे अहम मुशायरा साबित हुआ। कैफ़ी अपनी मशहूर नज़्म औरत सुना रहे थे…
उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे
क़द्र अब तक तेरी तारीख़ ने जानी ही नहीं
तुझमें शोले भी हैं बस अश्क फिशानी ही नहीं
तू हक़ीकत भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं
तेरी हस्ती भी है इक चीज़ जवानी ही नहीं
अपनी तारीख़ का उन्वान बदलना है तुझे
उठ मेरी जान…
…. और वह लड़की अपनी सहेलियों में बैठी कह रही थी, “कैसा बदतमीज़ शायर है। वह ‘उठ’ कह रहा है। उठिए नहीं कहता और इसे तो अदब की अलिफ़-बे ही नहीं आती। इसके साथ कौन उठकर जाने को तैयार होगा?” लेकिन श्रोताओं की तालियों के शोर के साथ जब नज़्म ख़त्म हुआ तब वह लड़की अपनी ज़िंदगी का सबसे बड़ा फ़ैसला ले चुकी थी। माँ बाप और सहेलियों ने लाख समझाने की कोशिश की लेकिन नाकाम रहें।
शायरी के अलावा घर की ज़रूरत होती है। वह खु़द बेघर है। खाने-पीने और कपड़ों की भी ज़रूरत होती है। कम्युनिस्ट पार्टी उसे केवल 40 रुपए महीना देती है। लेकिन वह लड़की अपने फ़ैसले पर कायम रही।
मई 1947 में इनका विवाह शौकत से हुआ। उनके यहाँ एक बेटी और एक बेटे का जन्म हुआ, जिनका नाम शबाना और बाबा है। शबाना आज़मी हिंदी फिल्मों की एक अज़ीम अदाकारा बनीं।
40 रुपए मासिक पगार से आलीशान बंगले तक का सफ़र
वक्त ने किया क्या हंसी सितम
तुम रहे न तुम, हम रहे न हम…
तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो
क्या ग़म है जिस को छुपा रहे हो…
आज सोचा तो आँसू भर आए
मुद्दतें हो गईं मुस्कुराए
कैफी आजमी ने हिंदी फिल्मों के लिए बहुत कुछ लिखा। 40 रुपए मासिक पगार से शुरु करके पृथ्वी थिएटर के सामने एक आलीशान बंगले तक का सफ़र तय किए। खूबसूरत लफ़ाज़ों में ही नहीं बल्कि खूबसूरत मायनों में लिपटे कैफी साहब के ना जाने कितने गीत हैं जो आज भी लोगों के जहन में जिंदा हैं और रहेंगे।