क्या खरीदें चिकनकारी कुर्ती साड़ी लंहगा सोने के जेवर मेकअप फुटवियर Trends

बिहार की राजनीति : गोलघर की भूल और गंगा की गंदगी का मेल

Rakesh Kumar Vishwakarma

By Rakesh Kumar Vishwakarma

Published on:

बिहार की राजनीति : गोलघर की भूल और गंगा की गंदगी का मेल

प्रतीकों से प्रतिकार तक-गोलघर और गंगा : बिहार के सपनों की पहचान, लेकिन सच्चाई के आईने में एक विडंबना “बिहार के सपनों की गंगा पवित्र है… लेकिन सच्चाई का पानी गंदा है।” यह वाक्य कोई सामान्य कथन नहीं, बल्कि बिहार की सामाजिक चेतना, प्रशासनिक संरचना, और राजनीतिक संस्कृति का निचोड़ है, जो दो स्थायी प्रतीकों गोलघर और गंगा-के माध्यम से आज भी जीवंत दिखाई देती है।

गोलघर और गंगा : प्रतीकों की द्वैध प्रकृति

पटना के हृदयस्थल में स्थित दो संरचनाएं-गोलघर और गंगा नदी-बिहार के अतीत, वर्तमान और संभावित भविष्य का सार हैं। एक ओर गोलघर है, जो 231 वर्षों से स्थिर खड़ा है, और दूसरी ओर गंगा, जो निरंतर बहती है। पर दोनों प्रतीकों में एक गहरा विरोधाभास है-गोलघर अचल है, फिर भी स्मृति को ढोता है। गंगा गतिशील है, फिर भी गंदगी को अपने भीतर समेटे हुए है। गोलघर का इतिहास अंग्रेजी शासन की उस मानसिकता का परिचायक है, जिसमें दया के आवरण में शोषण की योजनाएं पनपती थीं। दूसरी ओर गंगा, जिसकी लहरों में कभी पवित्रता बहती थी, अब आधुनिकता के नाम पर फैले प्रदूषण की मार झेल रही है।

गोलघर : इतिहास की भूल, वर्तमान का प्रतीक

गोलघर का निर्माण 1786 में ब्रिटिश इंजीनियर कैप्टन जॉन गार्स्टिन द्वारा कराया गया था। उद्देश्य था-1770 के भीषण अकाल के बाद बिहार में अनाज का भंडारण। लेकिन यह निर्माण एक योजनाबद्ध शोषण का हिस्सा था। अंग्रेजों ने कृत्रिम दुर्भिक्ष पैदा कर गरीब किसानों की मेहनत की कमाई को लूटने की रणनीति बनाई और उसी के तहत यह भंडारण केंद्र बना। परंतु सबसे रोचक तथ्य यह है कि इस गोलाकार भवन के दरवाज़े अंदर की ओर खुलते हैं। यदि पूरा गोलघर अनाज से भर दिया जाता, तो दरवाजे कभी नहीं खुल सकते थे। और यही हुआ-जब अनाज पूरा भर गया, तो दरवाजे टूटने पड़े। यह भूल केवल स्थापत्य की नहीं थी, यह उस मानसिकता की थी जो सतही हल की तलाश में जटिल संरचनाएं खड़ी करती है। आज का बिहार भी कहीं न कहीं उसी गोलघर की भांति है-ऊपर से भव्य, भीतर से बंद। योजनाएं, घोषणाएं और आंकड़े तो बहुत हैं, लेकिन उनके दरवाजे आम नागरिक के लिए खुलते नहीं। जब तक जनता संघर्ष न करे, तब तक कोई परिणाम नहीं मिलता।

गंगा : श्रद्धा की सरिता, सियासत की शिकार

गंगा को भारतीय संस्कृति में ‘माँ’ कहा गया है। इसके जल में डुबकी लगाकर मोक्ष की कामना की जाती रही है। परंतु आज की स्थिति यह है कि गंगा में आस्था की जगह आक्रोश बह रहा है। ‘नमामि गंगे’ जैसी बहुप्रचारित योजनाएं आईं, बजट आवंटित हुए, मंत्रीगण दौरे पर आए, पर पटना के किनारे आज भी गंगा में दर्जनों नाले गिरते हैं। जहाँ गंगा कभी अध्यात्म का स्रोत थी, वहीं अब वह आधुनिक बिहार की लापरवाही और अराजकता की गवाह बन चुकी है। गंगा को साफ करने की योजनाएं नेताओं के लिए महज एक चुनावी मुद्दा बन चुकी हैं। कैमरे के सामने पूजा, आरती और सफाई अभियान तो होते हैं, लेकिन नदी की वास्तविक स्थिति नहीं बदलती।

बिहार की राजनीति : गोलघर की भूल और गंगा की गंदगी का मेल

बिहार की समकालीन राजनीति दोनों प्रतीकों की विडंबनाओं का संगम है। एक ओर गोलघर की तरह अंदर से बंद नीतियां, दूसरी ओर गंगा की तरह बाहर से पवित्र दिखती लेकिन भीतर से प्रदूषित राजनीति। राजनीतिक दल हर चुनाव में विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार की गंगा बहाने का दावा करते हैं, लेकिन सत्ता में आने के बाद उनका व्यवहार गोलघर जैसा हो जाता है-भीतर की ओर बंद। चुनावों के दौरान गंगा के जल की तरह बड़ी-बड़ी बातें बहती हैं। घोषणाओं का सैलाब आता है, लेकिन सच्चाई की ज़मीन पर नतीजा वही होता है-गंदा, बदबूदार और निराशाजनक।

जनता की पीड़ा : सीढ़ियां चढ़कर बंद दरवाज़ों से टकराना

गोलघर की सबसे बड़ी विशेषता है उसकी 142 सीढ़ियां, जो ऊपर ले जाती हैं। बिहार की जनता भी हर चुनाव में सीढ़ियाँ चढ़ती है-उम्मीदों की, भरोसे की, बदलाव की। लेकिन जब वह ऊपर पहुँचती है, तो दरवाज़े भीतर से बंद पाती है। हर बार यही होता है-नया वादा, नई सरकार, नई रणनीति-पर पुराना ही सिस्टम, पुराना ही ठहराव। बेरोजगारी, शिक्षा की गिरती गुणवत्ता, भ्रष्टाचार, अपराध और पलायन जैसे मुद्दे गोलघर की दीवारों की तरह मजबूत हो चुके हैं।

गंगा के बहाव में बहे वादे

गंगा की लहरों की तरह ही नेताओं के वादे भी बहते रहते हैं।

  • शिक्षा सुधार की बात हो या रोजगार सृजन की,
  • कृषि संकट की चर्चा हो या स्वास्थ्य ढांचे की बदहाली,

हर मुद्दा गंगा के बहाव की तरह काग़ज़ों और भाषणों में बह जाता है, लेकिन हकीकत में वो कभी तट पर नहीं टिकता।

मीडिया और जनचेतना : आईना दिखाने का दायित्व

बिहार में आज मीडिया का एक वर्ग भी गोलघर की तरह ही व्यवहार कर रहा है-या तो वह सत्ता की दीवारों के बाहर घूम रहा है, या भीतर घुसने का प्रयास कर रहा है। गंगा की तरह बहने वाली निष्पक्ष पत्रकारिता अब धीरे-धीरे मैली हो रही है। परन्तु वहीं दूसरी ओर सामाजिक मीडिया, युवा संगठनों और जागरूक नागरिकों ने इस बंद व्यवस्था को तोड़ने के लिए आवाज़ बुलंद की है। ये आवाज़ें ही भविष्य में गोलघर के दरवाजों को बाहर की ओर खोल सकती हैं।

प्रतीकों से प्रतिकार तक : अब निर्णायक समय है

बिहार को अब गोलघर की भूलों से सबक लेने और गंगा की शुद्धता को पुनः प्राप्त करने की आवश्यकता है। इसके लिए केवल योजनाएं और घोषणाएं नहीं, बल्कि ईमानदारी, पारदर्शिता और जनसहभागिता की आवश्यकता है।

  • जनता को भी समझना होगा कि गंगा में डुबकी लगाने से पहले उसे साफ करना जरूरी है।
  • गोलघर पर सेल्फी लेने से अधिक ज़रूरी है, उसकी कहानी से सीख लेना।
  • राजनीतिक विकल्प चुनने से पहले यह देखना ज़रूरी है कि कौन “दरवाज़े भीतर से बंद” करने की मानसिकता के साथ आ रहा है।

क्या हम दरवाज़े खोल पाएंगे?

बिहार के प्रतीक आज भी हमारे सामने खड़े हैं-एक खामोश गोलघर और एक कल-कल करती लेकिन कराहती गंगा। एक तरफ इतिहास की गलतियाँ, दूसरी ओर आज की विडंबनाएं। बिहार के युवाओं, जागरूक नागरिकों और नीति निर्माताओं के सामने अब एक ही रास्ता है-प्रतीकों से प्रतिकार तक का सफर तय करना। क्योंकि… ”बिहार के सपनों की गंगा भले ही पवित्र हो, लेकिन जब तक सच्चाई का पानी गंदा है, तब तक विकास सिर्फ नारे में रहेगा, जीवन में नहीं।”

लेखक:

रंजीत कुमार राय
पीएचडी स्कॉलर,
पत्रकारिता विभाग, बीएचयू

Rakesh Kumar Vishwakarma

Rakesh Kumar Vishwakarma

राकेश कुमार विश्वकर्मा को मिडिया के क्षेत्र में 5 वर्षों से अधिक का अनुभव है। पाठकों से भावनात्मक जुड़ाव बनाना उनकी लेखनी की खासियत है। अपने पत्रकारिता के लंबे करियर में ट्रेंडिंग कंटेंट को 'वायरल' बनाने के साथ-साथ राजनीती और मनोरंजन जगत पर भी विशेषज्ञता हासिल की है।

Leave a Comment